जलता राख़
जलता राख़
तस्वीर धुँधली सी नज़र के सामने
बीते रंगों से लबालब दिखता
तेरी फुसफुसाहट की कहकहों से
मेरी दिल खिलखिला उठता
आज फिर खामोशी के शोर ने
जागते आवेगों को थपथपाया ऐसे
बुझी चिंगारियों को नचोड़ कर
राख़ के नीचे से सुलगाने को कहता।।
आज फ़िर प्रलय का अंदेशा है
मौसम को निगल जाने की धृष्ठता
धैर्य का बिखर जाना मुमकिन सा है
हिम्मत हौसलों का इम्तिहा है लगता
चाँद को लपेट कर चुनरी मे छिपाने से
सितारों को भी गुदगुदी सी महसूस होती
चलो मैं जल जाऊंगा आग तो लगा दो
बर्फ़ के सिने मे दफ़न लावा भी दहकता।।
तुम्हें पता नहीं तुम उदास हो ज़रूर
ना जाने क्यों मुझे ये एहसास होता
आज चाँद का इंतज़ार ना करो
अमावास को चाँद कहाँ निकलता
सपनों की खोज मे नींदे निकल पड़ी
खुली पलकों को पहरे मे बैठा कर
तंद्रा की आगोश में आँखें तो मूंद लो
खुली तिजोरी से खजाना ना मिलता।।
सुबह ना हुई अब रात शेष है बहुत
ये बिस्तर चादरों से बैर सा लगता
सिलवटें करवटें दिल की आहटें
लोटपोट लबालब लगाव लगता
चलो पी लेते चाँद की बची चांदनी
अनबुझी प्यास को और भी प्यासा कर देते
जहर पी पी कर जीने दो मरने वालों को
हमे तो अमृत पी कर मरना अच्छा लगता।।

