जलियांवाला बाग
जलियांवाला बाग
बात 13 अप्रैल सन 1919 की है
एक अंग्रेज ब्रिगेडियर जनरल डायर था
पंजाब पर हुकूमत के लालच में
रेजिनोल्ड डायर खुद बना कायर था
बैसाखी का मेला देखने के बाद
बाग में सभा की खबर से वहाँ पहुँचे थे लोग जन
पर मालूम न था कि
लौटकर न आ पाएंगे वहाँ से कभी वो अपने घर
डायर ने उस सभागार में अंधाधुंध गोलियाँ बरसायीं
मासूमों ने वहाँ बने कुएँ में कूदकर अपनी जान बचानी चाहीं
पर निकलने का एक मात्र संकरा रास्ता था
दीवारें कूद भागने की कोशिश
कैसे वो शहीद हुआ दूध मुंह बच्चा कर सकता था
फिर भारत के हर वीर ने
जलियांवाला बाग की मिट्टी चूम ये संकल्प लिया
जो जल रही सीने में सबके आग
उसे अंतिम रूप दे भारत आज़ाद कराने का दृढ़ किया
हुंकार उठी थी भारत में इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारों से
बच्चे बूढ़े महिला जवान सबने ठाना था,
खून का टीका माथे लगाएंगे डायर के प्राणों से
इक वीर अनाथ ऊधम सिंह के दिल में
डायर को मिटाने का तूफ़ान मचा
लम्बा इंतजार कर पहुँच गये वो लंदन
विद्या रूपी किताब की आड़ में
डायर को गोली मार स्वतंत्रता का इतिहास रचा
खुद अनाथ होते हुए देश को अनाथ होने न दिया
देश ने भी उनके क़र्ज़ को भारत की मिट्टी में
अपने एक नगर का नाम ऊधम सिंह रख दिया
ये गाथा न सिर्फ़ उस बाग की बल्कि है पूरे हिंदुस्तान की
जहाँ हर भारतीय ने आज़ादी दिलाने में
लगायी थी बाज़ी अपनी जान की
श्रद्धांजलि देते हैं उन बेक़सूर भाई बहनों और शहीदों को
जो कर गये प्राण नौछावर अपनी भारत माता को बचाने को
जय हिंद जय भारत