इक पल का दूर जाना कंचन प्रभा
इक पल का दूर जाना कंचन प्रभा
वीराना सा लगने लगा ये खण्डहर का महल
जहाँ तस्वीर लिये चुपचाप उन्हें निहारते हैं हम
क्यों आज उनकी आवाज भी मयस्सर न हुई
लगता है जैसे किस्मत के हाथों कुछ हारते हैं
इक खामोश तिश्नगी जो बारहा उठती है मन
रिस रिस कर फिर मौत आती है चली जाती है
छूने को तो छू भी लू तुम्हें अपनी धड़कनें छू कर
क्या करूँ पलकों के अश्क हिज्र-ए-रात में नहीं जाती
जख्म बदन पर कुछ पड़े तो तकलीफ नहीं होती
दिल तार तार कर देता है तेरा इक पल का दूर जाना
हजारों ख्वाहिशें उभरती है इस दिल में हर दिन
जिन्दगी तमाम कर देती है तेरे इक पल का पास आना

