गरीब की दीवली--दो शब्द
गरीब की दीवली--दो शब्द
दीपावली पर हजारों रूपये रौशनी और फटाखों में खर्च करते हैं लेकिन उन का क्या जो दो जून की रोटी के लिए जद्दोजहद करते हैं, मेरी यह रचना ऐसे ही दर्द को उकेरने की एक कोशिश है-
दीवाली
तुम फिर दे रही हो दस्तक
घर में उजाला करने के लिए दिये,
बच्चों की आस फटाके और फुलझड़ी-
और इधर दुखता बदन, सूखते होंठ
मंगहाई
सुरसा सा मुंह फैलाये बाहर खड़ी-
जिंदगी का बड़ा अजीब है खेल-
कहीं शुद्ध घी के दिये और कहीं नसीब नहीं तेल-
पत्नी की नम आंखें
और जगह जगह से झांकता बदन-
अंदर तक तोड़ देता है भगवन-
बेटे के छोटे होते कपड़े
बेटी की फटी फ्राक को सुई धागे से सीते-
अगली दीवाली में शायद आये लक्ष्मी दर पर
यही सोच कर जीते-
तब और भी बिखर जाता हूं
जब बच्चे भी कुछ नहीं कहते
किंतु देखते हैं आशा भरी नजर से
कि बाबा हर बार की तरह इस बार भी क्या खाली हाथ ही आओगे-
औ दीवाली के दीयों
हमारे अंधेरे जीवन में रोशनी करके
गरीब की दीवाली नहीं मनाओगे-
सच कहता हूं
दिल यही कहता है कि
काश! आँसुओं की बूंदों से
दिये की लौ जल पाती-
तो हम गरीबों की दीवाली भी हो जाती-
और मां लक्ष्मी
आपकी भी कृपा दृष्टि उस पर नहीं होती
जो खाली पेट, सूनी आंखों और पसीने से अपनी आकांक्षाओं की धरा को सींचता है-
क्या यह सच है मां कि
पैसा ही पैसे को खींचता है--
हे पार्थ
हमारे जीवन के महाभारत में तुम भी न बनोगे सारथी -
माना हम सुदामा की तरह आपके सखा नहीं हैं
लेकिन हैं तो याचक प्रार्थी -
तुम तो आराध्य हो
क्या हमारे कष्टों का हरण करने नहीं आओगे-
अपनी वह मधुर वंशी
जो देती थी तृप्ति, शांति
क्या अकिंचन के दर पर न बजाओगे-
औ दीवाली के दीयों, हमारे अंधेरे जीवन में, रोशनी करके,
गरीब की दीवाली नहीं मनाओगे-
हे राम
तुम जब सीता के साथ वापस अयोध्या आये थे-
तब हमने भी तो खुशी भरी आंखों से
जुगनू के माफिक ही सही
तुम्हारी राह में दीये जलाये थे-
क्या तुम भी कभी
अट्टालिकाओं से उतर कर
हमारी इस झोपड़ी में आओगे-
केवट और शबरी की तरह हमें भी प्यार से अपनाओगे-
अपने चरण कमलों से
बाट जोहती
इस गरीबी रूपी आहिल्या की पाषाण मूर्ति का उद्धार कर जाओगे-
उजालों कब दूर खड़े मुस्कराओगे-
औ दीवाली के दीयों, हमारे अंधेरे जीवन में रोशनी करके, गरीब की दीवाली नहीं मनाओगे-