गजल(सच्चाई)
गजल(सच्चाई)
यह मुमकिन नहीं हर बात को सच कह दूं,
दिन की रोशनी को यूं ही मैं, क्यों रात कह दूं।
आंखों से उतारा हो, मन से परखा हो,
कैसे उसे धोखेबाज कह दूं।
सींचा हो जिसने दिल के जख्मों को अक्सर,
उन अश्कों को कैसे बरसात कह दूं।
आया है जो, उसको जाना भी होगा एक दिन,
सच है भला क्यों जज्बात उसे कह दूं।
मेहनत और लगन से हासिल किया हो जिस आलम को,
कैसे सुदर्शन उसे खैरात कह दूं।
सच से रिश्ता न रखा हो जिस किसी ने,
कैसे उसे मैं सुकरात कह दूं।
थकता नहीं सूरज चाहे प्रकाश के सफर से, कैसे
उसके उजाले को रात मैं कह दूं।
करता नहीं इंसाफ जो अपने
कर्मों से, कैसे ऐसे इंसान को पाक मैं कह दूं।
दिखता नहीं पर सब पे नजर रखता है जो,
कैसे उसे गुनाहगार मैं कह दूं।
नेकी बदी साथ जायेगी आखिर सुदर्शन,
किसी के कहने से अपनी जुबां को कैसे दागदार मैं कह दूं।