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Kusum Joshi

Abstract Action

4.5  

Kusum Joshi

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मैं नारी हूँ

मैं नारी हूँ

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431


मैं नहीं कोमल फूलों की झुकी हुई प्रतान कोई,

छेड़ तो बज जाऊं कोई ऐसी वीणा तान नहीं,

मैं नहीं किसी चरणों में झुक स्वाभिमान तज सकती हूँ,

मैं कलम सिपाही बनकर बस शक्ति की पूजा करती हूँ,


कंगन पायल बिंदिया केवल ये मेरे श्रृंगार नहीं,

कलम पकड़ लूँ हाथों में तो बन जाती तलवार यही,

पहचान मुझे तुम क्या दोगे मैं ख़ुद अपनी पहचान हूँ,

देख लो हूँ मैं नारी शक्ति दुर्गा की अवतार हूँ,


प्रेम की मूरत मैं ही हूँ और मैं ही शक्ति ज्वाला हूँ,

सौम्य स्वरूपा गौरी हूँ मैं लिए हाथ में नरमुंडों की माला हूँ,

कभी हंस है मेरा वाहन मैं ही शेर पे चढ़ने वाली हूँ,

मीरा में ही रूप है मेरा मैं ही झांसी वाली रानी हूँ,


मैं नहीं कोई नाजुक सी प्रतिमा संरक्षण की बात करूं,

जो छूने से मुरझा जाएं ना ऐसे में जज़्बात धरूँ,

मैं नहीं कभी फैला कर अपने अधिकार माँगना चाहती हूँ,

मैं कदम मिला इस जग से जग का साथ निभाना चाहती हूँ,


चूड़ी के बदले हाथों में कलम पकड़ना चाहती हूँ,

बिंदिया पायल की नहीं खनक शब्दों की सुनना चाहती हूँ,

जो बहरे हैं उनके कानों को आवाज़ सुनाना चाहती हूँ,

नर नारी का मैं इस जग से भेद मिटाना चाहती हूँ,


बन आवाज़ हर नारी की मैं जग जगाना चाहती हूँ,

शब्दों के विस्फोट से जग का भ्रम तोड़ना चाहती हूँ,

मैं चाहती हूँ ना समझे कोई नारी को कमज़ोर यहाँ,

जो समझ रहा नारी को नाज़ुक उसे बताना चाहती हूँ,


जननी मैं ही जन्मदायिनी संहारक भी मैं गई ही हूँ,

मंदिर में जाकर जिसे पूजता दिव्य स्वरूपा मैं ही हूँ,

मैं ही हूँ धन धान्य यहाँ और मैं ही विपत्तिकारक हूँ,

साथ चलो तो संगिनी मैं हूँ अलग करो संहारक हूँ,


मैं नहीं प्रतिमा ऐसी जो मोल लगायी जाती है,

ना ही ऐसी माला हूँ जो तोड़ बिखेर दी जाती है,

मैं नहीं किसी दहलीज़ में बंधक बन कर रह सकती हूँ,

मैं कलम सिपाही बनकर बस शक्ति की पूजा करती हूँ।।



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