गजल(खंजर)
गजल(खंजर)
आँखों को मेरी चकमा देकर चला गया,
दिलदार था ऐसा ख्वाब झूठे दिखाकर चला गया।
उम्मीद बारिशों की थी, जिस बादल से,
वो कड़कती बिजली गिराकर चला गया।
लगाकर गले किया था दीदार जिसका,
वो पीठ पीछे खंजर घुसाकर चला गया।
लचक दिखती थी जिसकी सोने की तरह,
बन कर पीतल वो सौदागरी दिखाकर चला गया।
खड़कता है, दर्द बन कर सीने में हर पल न जाने क्यों?
जालिम जिस तरह सता कर चला गया
हर रोज बनी रहती है, यही सोच सुदर्शन
क्यों मजाक दोस्ती का कमबख्त उड़ाकर चला गया।

