'एक पक्षीय प्रेम'
'एक पक्षीय प्रेम'
व्यक्त कर पाऊँ नहीं मैं,
'स्नेह' जो उर में भरा है।
जानकर के भाव मेरा
क्या कहेगा चित्त तेरा?
सोचकर यह तथ्य दृग
अश्रु का आसव झरा है।
एक ही अभिलाषा तुझसे
की तुम्हें भी स्नेह मुझसे
स्वप्न का उपवन इसी से
शुष्क होकर भी हरा है।
जब कभी दर्पण निहारूँ
देखकर तव बिम्ब हारूँ
औ' हंसूँ यदि मुग्ध होकर,
सृष्टि कहती 'बावरा' है।
भाग्य ने जो पथ गढ़ा है।
हाँ उसी पर जग बढ़ा है
'एक पक्षीय प्रणय' मेरा,
क्षीण स्तंभों पर धरा है।
