दर्पण
दर्पण


दर्पण ने पूछी जो ख़ैर-ओ-ख़बर
ज़िक्र पे हम तिरे मुस्कुराने लगे।
धड़कनों ने तभी गुनगुनाई ग़ज़ल
बहुत ख़ूब वो सारे तराने लगे।
नैनों ने नैनों से बाँचा हृदय
इन आँखों को सपने सुहाने लगे।
हर शय में दिखता है मुखड़ा तेरा
हम ख़ुद से ही नज़रें चुराने लगे।
मेरे अक्स में भी झिलमिलाय पिया
अब दर्पण भी हमको सताने लगे।