डरावना मंजर
डरावना मंजर
कितना डरावना हुआ हैं मंजर, आदमी आदमी से घबरा रहा है।
चंद कागज के टुकड़े कमाकर, खुद को खुदा समझे जा रहा हैं।।
दिलो की दूरी भी ऐसी,रुपयों की खातिर रिश्ते ठुकरा रहा है।
टूट रही उधर माँ बाप की सांसे, बेटा इधर जश्न मना रहा हैं।।
कितनी वेदना से धरा हैं सिसकती,मनुज छलनी उसे जो बनाये।
मिटाकर मनुजता को दिलो से,क्रूरता के बीज बोता ही जाए।।
कुछ के मुख में न है निवाला,कही थाली में भंडार भरा सारा।
कही भूखमरी से बिलखे जिंदगानी,पर नैनो का सूखा हैं पानी।।
कही प्रतिभा हैं तो साधन नही है, कही साधनों से हुई मनमानी।
कितना डरावना हुआ है मंजर, शांत हो गयी कितनी कहानी।।