भावना
भावना
मन सदा निहार लेता है
प्रतिक्रिया स्वतः होने लगती है
हम कभी मौनता
के रूप को
अनायास धारण
करने लगते हैं,
और बचते-फिरते हैं
उन अभिनय से जो
रंगमंच में करके
दिखाना है।
भय है दर्शकों से
कहीं आलोचनाओं की माला
गले में डाल ना दें !
जब पहुँच गए रणक्षेत्र में
रणभेरियाँ बजने लगीं
फिर कहो कैसे रुके
कर्त्तव्य के जब हो धनी !
भावना को रोक के
ज्वलंत विषयों को छोड़ के
कब तक हम विचरेंगे
अपनी आँखों को मूंद के।।
