बाबा......
बाबा......
जब भीगती हूँ.......
कनारों से टकराती
उछलती लहरों से
दरिया की....
जब पिघलती हूँ
चर्म को भेद
लावा उगलती
तीखी...दाह भरी
दुनियावियत भरी
निगाहों से दुनिया की...
जब पोंछने को स्वेद बिंदु
झेरती पांख बनी वो
आंचल से बिखरती
समीर की शीतलता
बदल चुकी बन थाती
मेरी सुषुप्तावस्था की...
जब विस्मृति के तंतुओं में
उलझी, सुलझती, मैं
टकरा जाती हूँ
नग सम् नयन बिंदुओं से
वो इक आवाज..
लौटा लाती है
जीवनाशा
मेरी चेतना की...
धरा खो, विक्षुब्धता से
स्वयम् से , दूर होती
रही .....
पाषाणवत् हृदय को
खग मात सा सेती रही
क्यूँ आज फिर भर पड़ी
जल निमग्न
पलक तटबंधता की...
उसके साथ से साथ है
मेरे ... मेरी परछाई भी....
उसके होने से......
मुझ पर मेरी छत अभी भी है बाकी.....!!
