... वो बाते करते हैं ...
... वो बाते करते हैं ...


वो बातें करते हैंं,स्त्री-विमर्श की
गाँवों में पलती,खटती,
पति के साथ चाहा
अनचाहा जीवन बिताती औरतों की।
वो बातेें करते हैं,सड़क,सुनसान चौराहों पर
गिद्धों से अपने आज-कल से लड़ती दामिनी की।
वो अक्सर बातें करते हैं,आधुनिक औरत की
जिनकी परिभाषा में हैं ,वहीं औरत प्रगतिशील
जो पुरूषों से न सिर्फ बराबरी करे,
बल्कि कथित आधुनिकता के मायनों पर खरी उतरे
और पाते हैप्रखर,जनकवि और जाने क्या क्या विरूद्ध
उनको मैं क्यों नहीं दिखती ?
हाँ मैं !
जिसकी ख़बर अख़बारों की सुर्खियां नहीं बनती
क्यों ? वो कह नहीं सकती
उसे भोगा जाता डराकर, दबाकर और मैं
अनजान इस बात से भी कि
वो मुझेअंशअंश खत्म कर रहे है धीरेधीरे।
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वो ! कौन ?
जिनमें मैने देखा है अपनों को
जिन पर भरोसा है ,मुझसे ज्यादा मेरे अपनों को
जो बूूंद बूंद मेरा साहस पीते जा रहे है
किससे कहूँ ? क्या कहूँ ?
वो अनचाही छुअन
वो स्पर्श
वो उनकी आंखों में विद्रूपताऔर
अपनी हथेली में बांध लेना मेरा आत्मविश्वास
और मेरा कछुए की तरह खोल मे सिमटते जाना।
वो जो मुझे ड़राकर हर बार
मुझसे छीन रहे ,मुझ ही को
औरअनदेखी पट्टी से चुप कर रहे मेरे स्वर
मैं तुम्हें कब दिखूंगी ?
कभी तो झांकों मेरे अंतर्मन में भी
जहाँ है मृत सागर सा
जिसमें न पलती कोई मछली
वो नमकीन पानी हैं भोगी हुई पीड़ा का
गलाता जा रहा है मुझे मेरे पतंगी सपनों के साथ
भर रहा जीवन भर का अविश्वास मुझमें।