वो दर्द की रात थी
वो दर्द की रात थी
वो दर्द की रात थी...
तेज बरसात थी...
वो कहता रहा छोड़ दूं घर तुम्हें
ना मैं करती रही
मनुहार करता रहा
घूर कर देखा मैंने गिरेबान में
जाने लौटा वो जाकर
किस श्मशान में
चैन से आकर घर में
मैं सो जाती थी
पापा डर जाएंगे
मां तुम घबराओगी
सोच कर चुपचाप
सब सह जाती थी
वो दर्द की रात थी...
तेज बरसात थी...
सुबह ना होगा फिर
कल रात - सा
सोच कर फिर उस डगर पर
अकेले मैं चल जाती थी
वो दो जोड़ी आंखें...
मां ! फिर आती थीं !
ज़िस्म को मेरे
आंखों से छू जाती थीं
कांपकर ख़ौफ़ से
लौटकर घर आती थी
बंद कमरे में अपने
मैं सो जाती थी
वो दर्द की रात थी...
तेज बरसात थी...
सुबह ना होगा फिर
कल रात - सा
सोच कर फिर उस डगर पर
अकेली मैं चल जाती थी
प्रस्ताव उनका
हर बार ठुकराती थी
बस यहीं से मर्दानगी
चोट खा जाती थी
चंद लम्हों में आया
फिर सैलाब - सा
मरोड़ कर कलाई मेरी
बंद बोतल खोली थी
पूरी बोतल निर्ममता से
मुख पर मेरे
उसने उड़ेली थी
चीखती मैं, पुकारती तुम्हें माँ !
तुम पास थी ना कोई आस थी
बेपरवाह था वो
मैं बेआवाज़ थी
वो दर्द की रात थी...
तेज बरसात थी...
संग मेरे एक सहेली भी थी
ग़वाह वो जुर्म की
बस अकेली ही थी
हाथ जोड़े खड़ी,
बोली, तैयार हूं !
चुन्नी दूं अपनी तुमको
या सलवार दूं ?
मार बदन पर उसके झपटा
उसको लेकर गए !
मैं तड़पती रही मां !
मैं जलती रही...
जलन से नहीं जो एसिड ने दी
जलती उस सहेली से मां
कि क्यों मैंने ना चुन्नी
और सलवार दी !
वो दर्द की रात थी...
तेज बरसात थी...