खो रही इंसानियत
खो रही इंसानियत
एक है धरती एक आसमां,
एक परम शक्ति है सबकी मां,
रंग एक है हम सब में लहू का,
एक ही है संचार वायु का,
फिर क्यों! जाति भेद यहां है ?
सिख ईसाई और मुसलमान
क्यों धर्मों में बट गया है इंसान ?
चारों तरफ है लूट पाट और हिंसा।
कहां खो गए सत्य, प्रेम ,अहिंसा ?
इंसानियत का नहीं है कहीं नामोनिशां।
जागो ! उठो बनाओ प्यार का आशियाँ
प्रेम की पतवार से बढ़ाओ इंसानियत का कारवां
पार करो इससे नफरतों की सारी नदियां,
फिर महक उठें प्यार की खुशबू से सारी वादियां
चलो मिलकर बनाएं इंसानियत की नई दास्तान
जिसमें इंसान ही इंसान हो ना कोई हिंदू न मुसलमान ।।