लड़की
लड़की
राह थी राहगीर थे
तमाशा चल रहा था
सब तमाशा देखते
एक मनचला था
साथ में उसके महबूब थी
यहां तक तो ठीक था
पर दुष्ट उसको खींचता
एक थप्पड़ जो पड़ा
गाल उसका झन्ना गया
होश जब तक संभालती
कुछ कहती कुछ पूछती
नाक पर मुक्का जा जमा
बस होश खोकर गिर पडी
मनचला यहीं ना रुका
उसके सिर पर
लात पे लात ज़माने लगा
हांथ में हथियार था
अंत को उसके तैयार था
प्रदर्शनी का दौर था
मजमा चहूँ ओर था
कोई उस लम्हें को
फोन में कैद करने में व्यस्त था
कोई मौन हो तमाशा
देखने में मस्त था
मौन हो बस तमाशा देखिये
ना कुछ कहिये,
ना कुछ कीजिए
कहने को तो भीड़ थी
क्योंकी जो मरी
वो आपकी कौन थी?
सड़क पर लहू-लुहान थी पडी
साँस उसमें कहाँ बची
मनचले को कहाँ संतोष था
पत्थर उठाकर, दे मारा
सिर में उसके जोर सा
कल को जब चर्चा चलेगी
ये घटना कैसे घटी ?
पैनलो में बैठकर
ये ही जाहिल ज्ञान देंगे
नारी सशक्तिकरण को
ये शब्द का अम्बार देंगे
सरकार को कोसेंगे
प्रशासन पर अंगुलियां उठाएंगे
भीड़ में घुस तमाशा देखने वाले
नपुंसक अपनी बुजदिली को
शब्दों का जामा पहनाएंगे
आज बेटी किसी और की थी
कल किसी और की होगी
परसों क्या करोगे ?
जब सड़क पर ,
बेटी आपकी होगी
पर एक बात याद रखना
इसे घटना कहके मत टालना
ये उस प्रथा की शुरुआत है
आपकी बेटी तक
पहुँचने वाली जिसकी आंच है।
