बचपन के दिन
बचपन के दिन
बचपन के दिन
कितनी जल्दी लद गए
तितलियों के पीछे दौड़ते-दौड़ते
हम कब बड़े हो गए
भरी दोपहरी में
चुपचाप घर से
निकल जाते थे
कितने पिटे पर हम
हरकत से कहां बाज आते थे
न खाने की फ़िक्र, ना नहाने की
खेलते खेलते कब शाम हो जाती थी
और हम सो जाते थे
छुपन छुपाई का वो खेल
मिट्टी से बनाते थे रेल
हम उस कल्पना में कितने खुश थे
देखते ही देखते हम जिम्मेदार हो गए
.............. बचपन के दिन
कितनी जल्दी लद गए
चंदा और सूरज से
कितने खूबसूरत रिश्ते थे
भूत-भूतनी के क्या खूब किस्से थे
आज हम कहां भीड़ भाड़ में खो गए
............. बचपन के दिन
कितनी जल्दी लद गए
त्योहारों की खुशी
हमसे ज्यादा कौन जानता था
होली के रंगों में
कितने मिल घुल जाते थे
पूजा के लिए रखी सामग्री का
चुपचाप भोग लगा जाते थे
वो चोरी करके खाना
आहा! वो स्वाद कहां खो गए
........... ............. बचपन के दिन
कितनी जल्दी लद गए
हममें अपने-पराए की
कहां समझ थी
सब कुछ सच बता देते थे
बहाने भी ऐसे बनाते थे
कि खुद पकड़े जाते थे
तब हम बातें बनाना कहां जानते थे?
आज हम झूठ के सरताज हो गए
.............. ............. बचपन के दिन
कितनी जल्दी लद गए
