एक अनुभव माँ के साथ
एक अनुभव माँ के साथ
हाड़ कपाउ ठंड थी
शीत लहर थी चल रही
जब हम चले थे
रात के 10 बजे थे
गलती मेरी थी
आने की सूचना
देरी से दी थी
सफर कटता जा रहा था
घर जाने की खुशी में
मैं एक गीत गुनगुना रहा था
हम घर पहुंचे
रात के 12 बजे
उठ के माँ ने कुंडी खोली
प्यार से वह थी बोली
बेटा रोटियां रखी हैं चार
खा लेना नहीं तो
हो जाएंगी बेकार
सभी खाना खा चुके हैं
मस्त सब सोये पड़े हैं
मैं मस्त रोटियां खा रहा था
मेरा चेहरा देखकर मानो
सुकून उनको मिल रहा था
मैं रोटी खा चुका था
एक किताब पढ़ रहा था
तभी सामने मेरे आया
चाय का एक मस्त प्याला
मैंने चाय पी
कुछ माँ से बात हुई
फिर मैं सो गया
और माँ जागती रही
मैं बुद्धिहीन
कुछ समझ ना पाया
सुबह मेरी बहन ने
मुझको बताया
भैया कल
कुछ यूं हुआ था
आटा कुछ कम पड़ा था
रात के ग्यारह बजे थे
बाजार भी बंद हो चुके थे
सभी खाना खा चुके थे
बिस्तरों में जा चुके थे
जिस उम्र पर सभी आराम करते
बैठ कर बस श्री राम जपते
माँ काम निपटा रही थी
बस खाना खाने ही जा रही थी
तभी फोन की घंटी बजी
तुम्हारे आने की सूचना उनको मिली
अकस्मात कहने लगी
पता नहीं, मुझे भूख ही नहीं लगी
कहानियाँ मैंने सुनी थी
उस दिन साक्षात्कार भी हो गया
श्रद्धा हृदय में बसी थी
विश्वास उस दिन हो गया
सारे ऐब मुझमें हैं
सारे फरेब मुझमें हैं
अपने कर्मों की शर्मिंदगी मुझमें है
दुनिया भर की गंदगी मुझमें है
फिर भी मैं उसकी आंख का तारा हूं
वो मेरा सहारा है ,मैं कहाँ उसका सहारा हूं ?
औकात मेरी नहीं
कि मैं उसको रख सकूं
मेरा अस्तित्व है ही नहीं
मैं खुद उससे हूं
