पतंग की डोर
पतंग की डोर
एक पतंग की डोर
किसी और के हाथ में थी
और वो छू रही थी
आसमान की ऊंचाइयां।
कितना ऊँचा जाना है
किस दिशा में भरना है उड़ान
डोर में ढिल दी जाती थी
या फिर तान।
मगर एक दिन
हवा का एक झोंका
आयामन में एक विचार कौंधा
जगा एक विश्वास।
सोंचने लगी पतंग
स्वयं क्यों नहीं बढ़ सकती आगे
हाथ बिना किसी के थामे
अपने जीवन की डोर
क्यों दूँ किसी पर छोड़।
पुरे विश्वाससे लगाया जोर
झटके से तोड़ दिया डोर
और लगा लिए दो पंख
जाना है किस दिशा में
कर के फैसला उड़ चली उस ओर।
हवा के रुख को अपनी
मर्जी से लेती है अब मोड़।
हवा के वही थपेड़े
नहीं करतेअब कमजोर।
बड़े आत्मविश्वास से
गगन की गोद में पाँव रखकर
छूती जाती है नित नई ऊंचाइयाँ
क्यों कि उसे मालूम हो चुका है
बिना जुझे हवा के थपेड़ों से
कैसे मिलेगी वो ऊंचाइयाँ।
