आदमी और परिंदा
आदमी और परिंदा
हर उड़ते, परिंदों को देख
इंसा सोचता, काश उसके
पर होते, तो आसमां नापता।
प्रदूषण से मुक्त, भीड़भाड़
की भेड़ चाल से हटकर ,
सुख के कुछ, क्षण जीता।।
काम, परिवार दोस्तों की
चिंता और अशांति ने,
जीना किया मुहाल।
चकरघिन्नी सा,चलता
रहता, हर पल आदमी
मशीन जैसी, उसकी चाल।।
अपने और खुद का
हित साधता, आज का इंसा।
दूसरों का जो, सोचता
पागल करार, दिया जाता इंसा। ।
अच्छे हैं परिंदे दूसरों के
काम तो हैं, आते।
संगी साथियों के, सुख दुख
में साथ, खड़े रहते ।।
परिंदों के,अच्छे गुण
सीख ही, रहा आदमी।
जाने कब सबक, होगा पूरा
तय नहीं कर, पाया आदमी।।
सुखी है परिंदे, न उनमें
श्रेष्ठ बनने, की है चाह।
आदमी तो है, बेचारा 'मधुर '
दूसरों पर चढ़, बनाता अपनी राह।।