घरौंदा
घरौंदा
बचपन से रेत के घरौंदे बनाते थे हम।
अपने ही नहीं आंधी तूफ़ान से खराब ना हो औरों के भी
घरौंदे बचाते थे हम।
बचपन में जब समझ नहीं थी कोमल और पाक था सबका मन।
बड़े हुए मशहूर हुए जाने कैसे मद में चूर हुए।
घर बनाकर बड़े-बड़े यूं ही सब मगरूर हुए ।
बचपन में जो बचाते थे रेत के घरौंदे भी,
आज देकर के धोखा,
लूटने को तैयार है औरों का सामान भी।
अपने घर को बढ़ाने के लिए
पहुंचा रहे हैं औरों के घरौंदे को नुकसान भी।
देख रहा है परमात्मा और न्याय भी करेगा।
जो तोड़ेगा दूजे का घरौंदा भला उसका घर कैसे बसेगा?
