लौटते क्यों नहीं?
लौटते क्यों नहीं?
लोग तीव्र,
भावनाओं की,
ध्वजा फहरते देख,
जोश से अतिशय भर जाते हैं,
शंखनाद करते हुए,
वे गिनाते है इतिहास की,
पुरखों की उपलब्धियां,
अपने मुख से।
वे चलते है,
फिर और तेज चलते हैं,
दौड़ने लगते है,
लेकर पताकाएं मिलती जुलती,
उद्घोष करते हुए,
अपने स्वर्णिम अतीत के,
वारिस होने का।
मार काट,
मचाने को बेचैन,
घृणा भरे शब्दों से,
कहीं निकृष्ट कर्म से ,
उन पर,
जिन्होंने सुना भी नहीं,
होगा कोई प्रायोजित,
प्रलाप उनका।
मैं हतप्रभ हूँ,
इन उग्र विचारों के
बवंडर से,
जो वर्तमान की,
समस्याओं को भूल,
मिटा देना चाहते है अस्तित्व,
किसी समष्टि का,
अतीत के नाम पर,
नहीं सोचते,
की इस चढ़ी प्रत्यंचा पर,
कौन और क्यों
आरूढ़ है।
जिन्हें सहजीवन,
सहभागिता के उद्देश्य,
में मानवता का पालना,
नहीं दिखता,
जो बहसते है कि क्यों हम ही,
जिम्मेदारी लें सबकी,
वे नहीं सोच सकते ,
नए युग की आम सहमति,
याद रखते हुए अतीत की,
पीड़ाएँ,
जो उधड़ेंगी तो,
हर तरफ से उधड़ेंगी।
जिन्हें बस,
उद्वेलित हो उद्विग्न करना है,
समाज की समरसता को
,
कठपुतलियों सा,
नृत्य करना है ,
नर पिशाचों के सामने,
उनकी सत्ता के मद को,
पोषित करते हुए।
पूछना चाहती हूं,
उन्हीं आवेशित लोगों से,
इस युग मे अतीत की,
समिधाएं लिए,
वे लौटते क्यों नहीं हैं ,
स्वयं ही,
अपनी जड़ो की ओर,
जीते क्यों नहीं,
वो कबायली -पुरातन युग,
अपने इस युग की,
तमाम उपलब्धियों को,
तज कर।
कहीं पढ़ा था,
आसान होता है,
पुरखों की उपलब्धियों पर,
अमरबेल सा चढ़ जाना,
दुंदुभि बजाना,
उनके उस रण के लिए जिसमें
शामिल होना,
उनके लिए,
वर्तमान में संभव नहीं,
आसान होता है ,
स्वांग करना- कराना,
उबासियाँ लेकर कोसना,
भर जाना उन्माद से सुन कर,
कोलाहल,
अतिरेकता का।
कठिन है,
शांत चित्त होकर समझना,
समझाना, युक्ति करना,
सब संभालकर,
साथ साथ चलना ,
वास्तविकता में भविष्य को तज,
अपनी कोंपल संग,
जड़ो की ओर,
पूर्ण रूप से,
लौटना।
धिक्कार है ,
उस कर्म-विचार पर,
जो निज स्वार्थ हेतु ,
चाहते हैं करना,
अतीत के नाम पर ,
शांत निर्दोष धरा का ,
रक्त अभिषेक।