अस्वीकृति
अस्वीकृति
अस्वीकृति एक शब्दके आगे
एक उपसर्ग लगते ही
मायने बदल जाते जहाँँ जीवन के
किसके लिए एक
औरत के लिए ?
एक दंश है ये
जिसे एक बार कह कर
कितने अरमान बिखेर दिए जाते
कितनी उम्मीदे तोड़ दी जाती
कितने दिल तोड़ दिए जाते
जो ताउम्र फांस सा धंसा रहता
कही भीतर
अस्वीकृति किसकी??
कभी ज्ञान कभी धन
कभी बाहरी आवरण
पर हर बार तन के असौंदर्य की
कितनी कुंठा को जन्मती है ये
कितने सपनों को लील जाती आज भी
जब हम कहते समय बदल रहा
पर_मैं_कहती_
बदलों खुद को
बनाओ अपनी पहचान
तोड़ कर हर कलुषित वर्जना
अपनी कर्मण्यता पहचान ।।
तु नहीं कोई वस्तु जिसको परखा जाए
देखभाल फिर अपनाया जाए
तेरा _है _अपना अस्तित्व
भावों भरा है एक हृदय
आसमां की पराकाष्ठा से ऊर्ध्व
तेरे सपने
धरा से गहनदृष्टि
कर_स्वीकार_खुद_को
कर_स्वीकार खुद_को
कुछ कर गुजर ऐसा
होकर व्यग्र अधीर
अपने अहम् को चीर
ये तमाशाई गाए तेरे गीत
खुद को मिला खुद से
ख्वाब सजा तामील कर
क्या हुआ जो आज नहीं तेरे संग ये
तु अपनी ठोकरों से खा़क उड़ा
हो जाए मुंतज़िर ये
कुछ इस तरहा
तु अपने हर्फ लिख तदबीर सजा
तु खुद को स्वीकार कर
तु बढ़ कर जहां मे
आ_अपनी_पहचान_बना ।
