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Monika Gopa

Others

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गोपा.....पीड़ा अंतर्मन की..

गोपा.....पीड़ा अंतर्मन की..

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सत्य की खोज में निकला एक विवह्ल हृदय ले, सुकुमार,

तज ताज, ऐश्वर्य, राहुल कह बंधन और सकल व्यय भार ,

आलोक की तलाश में बन यायावर, भटका ,कर तन क्षीण ,

काट मोहादि बंध, घट मे भरे एक ही विचार !!


राग, मोह ,लोभ,प्राण सुधि बिसार ,एक ही दृष्टि तान,

मनःप्राणेन्द्रिय कर वश..अंततः पाया निजता ,का ज्ञान,

मनुज के पौरूष का अंतिम सत् जान,

किया सकल भू को समर्पित आत्मचित्त की प्रभुता का ज्ञान !!


पर....नेपथ्य में,था एक, करूण क्रंदन ,

एक व्यथित काया थी, मूक थे अधर,

भीतर भरा ज्वारनद सा विक्षोभन 

भार्या थी...एक प्रश्न से जूझती...''मेरा क्या दोष था'??


अभी ही तो आया था..सुधारस सा छाया था

यौवन मकरंद...पुष्ट हुए जाते थे..अंग -प्रत्यंग ,

प्रेम के, उल्लास के,छज रहे मुख पर अतुल उपवन ,

विप्रलभ्भ को क्यूं छोड़ गये..ओ यायावर ???


अभी ही तो जन्मा था अंश प्रेम का ,

गर्भ से बाहिर..वह बीज...कहाँ पूर्ण पनपा था ??

कैसी थी वो काल रात्रि ??

लाई तम तेज घना ,अभी तो सपन संजोना था !!


तुम तो चल दिए खोज में ...सत्य की...

पलट न ली सुधि उस सरल की ,

जब उस रात गहन निद्रा मे सोई थी ,

हर दाघ से भविष्य के विमुख, पिय संसर्ग मे खोई थी !!


उठा प्रहर..जगी संसृति..सोया भाग,

हतप्रभ,जलती आक्रोश से ,भर उपेक्षा भाव ,

एक ही प्रश्न से जूझती,गर न होता ये बीज अंक मे..

कर वरण मृत्यु, मैं फिर जी भर सोती !!


हुई शिला सी थी वो नार, जीती देख मुख सुत का,

ढोती त्याज्य् जीवन का यह नग सम् भार,

बीते कालखण्ड़ ..पहिया समय चक्र का घूमा ,

सिद्धार्थ हुए तथागत ,पायी बुद्ध की थी उपमा !!


इक दिवस गोपा के द्वार पर हुआ...एक उद्गार..

दौड़ी ..खोले किवांड़, आह !! पाये दर्शन ,

हुआ एक युग का अवसान ,

एक ही प्रश्न निकला मुख से.....


क्या सिद्धी मार्ग की बाधा थी मैं......??

तुम्हारी ही तो अनुगामिनी थी..

हेत, प्रीत की सहचरी थी मैं ,

गर आत्मबोध था अपरिहार्य,

मैं भी कदा सह भरती डग,

बन सहगामिनी, बनती प्रेरण !!


तुमने पाया बोध ज्ञान का, मैने नहीं छोड़ा परिवार,

सजाती रही पूर्ण श्रद्धा से, तुम्हारा ही ये संसार,

तुमने जाना मर्म जीवन का, मैने निभाया कर्म जीवन का ,

एक ही राह के अन्वेषी थे हम, तज चले चुपचाप क्यो ??

देकर मेरे आत्मविश्वास को आघात !!


आज आए हो फिर द्वार पर ,

करती उत्सर्ग मैं सकल संसार,

सुत संग मैं भी चलती सत पथ पर ,

धर पग तुम्हारे पद चिह्न पर,

जान चुकी मैं भी ये इक सत ,

स्त्री नहीं पराश्रित, अबला नहीं है !!.

सकल भू की सृष्टि है वो...

है..मनुज जीवन का आधार !!!



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