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Monika Gopa

Abstract Others

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Monika Gopa

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कौर.....

कौर.....

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वो सूखे इक फाड़ कनक को पीस...

छानती थी छलनी से ..

आटे के संग...

कुछ मुस्कुराहटें..

बचाती छलनी में

सुख-दुःख की

खुरदरी चापड़...!!


गूंथकर पानी से

करती एकमेक

बिखरी आशाएं 


तोड़कर इक लोई..

बेलती सपाट,

ओ' लचीले..

रास्तों सी गोल रोटी

कि...वृत्ताकार ही तो है

सब जीवनाशाएं....

कि, हर सिरा फिर मिलता

वहीं आकर...जहाँ से

शुरू है...उम्मीद के

पथ....!!


सेकती थी..माटी के

तवे पर...न सिर्फ़

रोटियां...

जगाती...चूल्हे की आग सी

एक चमक मेरी आंख में..

कि....

सिक कर ही हर ओर से

पूर्णता पा सकती

अस्तित्व की....!!


बिन कहे सिखाती जो

बीनने से बुनने तक की

यात्रा...

दिखाती बिखरने से

बनने तक का

रास्ता ..

जगाती उगने से उजास की

लौ....!!


मैं..हमेशा

मेरी पत्तल से देती

उसे पहला एक निवाला..

कि...

हर निवाले पे

मेरे आज भी है...

छाप उसकी उंगलियों की...!!



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