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Monika Gopa

Romance

4  

Monika Gopa

Romance

प्रतिच्छाया..

प्रतिच्छाया..

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उसने कहा,

थक गया हूँ...!!


भागते हुए

परछाइयों के पीछे....

ख्वाहिशों को गुणित,

द्विगुणित करने के

फेर में..

जद्दोजहद में..

सांसों की पगडंडियों से

चढ़ाव के शिखरों को छूने के

अंतहीन प्रयासों में..!!


थक गया हूँ !!


शून्य से शिखर की इस यात्रा में

नग गर्भ से निकली धार जो

बहती जीवन मैदानों में,

विस्तार पाती समेटती 

अनगिनत सुख, दुःख, तृष्णा

रूपी हीरक कण, कंकड़

और सींचती मरीचिका के जंगल

पर अंततः समाती

अनंत सागर में...

उस अंतहीन पिपासा से

सूखते कंठों की चुभन से !!


थक गया हूँ.....!!


अपनी राह हेरते 

फेरते तुमसे नजरें

करते आंख बंद तुम्हारे 

हरेक उत्सर्ग से,

अश्रु बिंदु को

जलकण समझ धूप में

वाष्पित होने की शब्दहीन

प्रहार की टंकोरमयी सजा 

दे दे कर...

उसी नमक की जलन 

जलते घावों की 

दहन से......!!


थक गया हूँ....!!


मैं भीगना चाहता हूँ, अब इन्हीं वाष्प कणों से

बनते बादलों से फूटते पानी के सोते में

कि....हो शांत ये दहन ।


मैं समेटना चाहता हूँ, फिर अपनी बांहों में

हर क्षण तुम्हें, कि जान चुका हूँ

उर्वरता तुमसे ही है, जीवन की।


मैं सांसों की पगडंडियों पर

चलना चाहता हूँ तुम्हारे संग

कि जीवन धूप में मिले तुम्हारी

परछाई मेरी छाया संग

और..हो ऊर्ध्व.. छू ले..शिखर को।


मैं.....फिर तुम होना चाहता हूँ..

कि, जुड़ना तुमसे ही तो

मेरा संपूर्ण होना है........!!


मैं......संपूर्ण होना चाहता हूँ.....!!


दोगी फिर से मुझे....

तुम्हारी प्रतिच्छाया बनने का

सम्मान........!!



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