रात से गुफ्तगू
रात से गुफ्तगू
रात से गुफ्तगू करते करते सवेरा कब हुआ पता ही नही चला।
तेरा इंतेज़ार करते करते अंधेरा कब हुआ पता ही नही चला।
उस रोज़ अकेले तारो की जगमग रौशनी के तले कुछ सोच रही थी मैं।
वो मोहब्बत के अफ़सानों को उन हवाओ में महसूस कर रही थी मैं।
ख़याल मुझे तो वो भी आया कि मोहब्बत थी या तेरी मज़बूरी थी मैं।
उन लम्हों में बीते कुछ अधूरे किस्सों सी थी मैं।
याद है मुझे कहती थी कि बेहद शिद्दत से मोहब्बत करती हूं मैं।
शायद उसी क़सूर की सजा मिली है मुझे।
ना जाने कब से वो तकिया मेरे अश्क़ों ने भिगो रखा हैं।
मेरा दर्द देख तो उस चाँद ने भी सारे तारो को अपनी आगोश में ले रखा है।
उदासी देख मेरे चेहरे की उस रात ने मुझसे एक सवाल किया
मेने गले लगा के अपने ज़ख्मों का उसे पता दिया।
ये चंद आँसू उसकी आँखों मे भी आए थे।
घाव लगे मेरे दिल के जो मेने सबसे छुपाये थे।
यू तो रात में उस शम्मा के परवाने तो काफी थे।
पर उस शम्मा में जलते कुछ राज़ हमारे भी पुराने थे।
रात को एहसास हुआ उस राज़ को तो पूरी कायनात ने पेहरा रखा था।
मनचली वो हवाएं उड़ा न ले जाए उसे क्योंकि राज़ भी मेरा गहरा था।
दास्तान ही कुछ लंबी थी जो वक़्त का पता न चला।
और रात से गुफ्तगू करते करते सवेरा कब हुआ पता न चला।
