आक्रोश
आक्रोश
खून खौल उठता है मेरा, आँख से आंसू बहते है
एक बच्ची की स्मिता लुटी है, कैसे हम सब चुप बैठे है?
कायर है लोग आज के, कहने से भी कतराते हैं
सुनकर चीख वो माँ बहनो की, अनसुना कर जाते हैं
बगल गली में कुत्ता भौंके, तो पत्थर खूब चलाते हैं
अगर पास कोई लड़की छेड़े, अनदेखा कर जाते हैं
आज का बेटा पूरी तरह से, अंदर अंदर सड़ चूका है
तन स्वस्थ दिखता है उसका, मन से लेकिन मर चूका है
कर्म का कोई बोध नहीं है, ना दुष्कर्म की ग्लानि है
लाज रिश्तों का बचा नहीं अब, ना आँखों में पानी है
‘काम’ का यह विष सबके, मन में है यूं पल रहा
वासना की आग सबके, तन में जैसे जल रहा
क्या वहशीपन पौरुष का ये, बच्चो का भी मान नहीं
लाज लूट ले नारी की जो, नर का है ये काम नहीं
जिस तन को है नोचा नर ने, उसने नर को जन्म दिया
खींच कर जिसको हवस बुझाई, उसी आँचल ने बड़ा किया
जिसकी लाज है लूटी तूने, किसी की वो दुनिया होगी
किसी की साथी, किसी का साया, किसी की वो बिटिया होगी
पाप किया है तूने भारी, कैसे बोझ उठाएगा?
अपने घर में माँ बहनों से, कैसे आँख मिलाएगा?
कभी क्या सोचा तूने, एक दिन कहीं ऐसा हो जाए
तू घर पर नही हो कोई, तेरी आन को लूट ले जाए
तब समझेगा दर्द को उसके, जो तुझसे लिपट कर रोएगी
होश ना होगा उम्र भर अब, बस अपने ग़म को ढोएगी
एक बार जो देव कोई, कर को मेरे खोल दे
दंड दे सकता हूँ मैं उनको, इतना सा बस बोल दे
भस्म कर दूँ पापी को मैं, दुष्टों को लताड़ दूँ
एक ही वार करु उनपर मैं, उनके प्राण निकाल लूँ
समय शेष है अब भी हे नर, जागो और सम्हल जाओ
करो सम्मान नारी का तुम, अपना जीवन सफल बना जाओ
