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Sakshi Yadav

Tragedy Crime

4.8  

Sakshi Yadav

Tragedy Crime

अपना सा लगता है

अपना सा लगता है

5 mins
607


वो दूर का सितारा दूर होकर भी अपना सा लगता है

जो मिला वो सहारा अनजान होकर भी अपना सा लगता है

जो अपना था उसने काबिलीयत मेरी की कद्र ही नहीं की

इसलिए हर अनजान शख्स मेरी ओर आता हुआ मुझे अपना सा लगता है

बिखर चुकी हूँ

खुद अपने आप से इस कदर रूठ चुकी हूँ

कि नसीहतें वो सब मुकाम , मुझे महज़ सपना सा लगता है

हर वो स शख्स जो मेरा नहीं , मुझे अपना सा लगता है

बिखरी सी ज़िंदगी कैसे समेटूंगी मैं

रास्ते वीरान सब तने बैठे हैं

कब तक और आखिर किस-किस से ऐंठूँगी मैं

अरसा हो गया अकेलेपन पर कुछ लिखे

क्योंकि लौट चुकी बनी बनाई दुनिया में जहाँ आँखों देखा भी सपना सा लगता है

मुझसे नहीं रहा जाता मुझे अपनी दुनिया में जाना है

जहाँ हर दस्तक देने वाला मुझे अपना सा लगता है

मुस्कुराने की आदत नहीं थी मेरी

पर शायद अब गमों को छिपाने लगी हूँ

हर आँसू गम ले जाता था मेरा , पर अब ज़्यादा मुस्कुराने लगी हूँ

रातें मेरी दिन ना जाने किस को दिए रहती थी मैं

मुझे मेरी रात चाहिए थी , दिन जाने क्या कहती रहती थी मैं

रात सफ़र था मेरा मुझ तक पहुँचने का

पर अब रात मेरी का उनकी नींदो संग बँटना

मुझे खुद का मिटना सा लगता है

अज़ीज़ मुझे वही रात है जहाँ हर साया मुझे अपना सा लगता है

ज़ख्म इस क़दर दिए गुमानों ने 

लूटा मुझे इस क़दर ज़मानों ने

गलती इतनी सी थी कि बस उसूलों पर न चली मैं

मेरे पैरों में छालें नहीं है , इसलिए तो घिरी हूँ सवालों में

निशाना हर पल मैं बनी इसकी तो वज़ह भी बड़ी नफ़ीस है

बस ये कि फैसला वो मेरा था

कि उनके-मेरे दरमियां मुझे बस सरहदें अज़ीज़ है

मुझे मेरी अपनी दुनिया प्यारी

तुम्हारी ज़िंदगानी तो जैसे मुझे घुटना सा लगता है

ज़माने में जाने कितने ही ज़माने है

पर तुम्हारे अलावा हर ठिकाना मुझे अपना सा लगता है

ये दाग जो माथे अपने पर लेकर चली हूँ मैं

कि मेरे अतीत के पन्ने कहानी तुम्हारी से ताल्लुक रखते है

चलो स्वीकार किया कुछ हद मैंने भी

कि हम तुम्हारे जैसे है, 

पर याद रखना, चुम्बक के एक छोर कभी नहीं मिलते है

अतीत अपने का वो साफ़ा ओढ़ने वाली तो नहीं हूँ मैं

उसूल तुम्हारे पर चलने वाली तो नहीं हूँ मैं

ठीक है , तुम्हारी सहमति यही तो खून - खराबा भी मोहताज़ है

पर कह देती हूँ , मेरी दुनिया पर मेरा राज़ है

किसी वीरान जहां में अकेला आशियाना मुझे अपना सा लगता है 

खड़ी हूँ उस छोर पर जहाँ , 

तोड़ देना हर बन्धन मुझे हक़ अपना सा लगता है

कोई गिला नहीं कि खंडरों में रहकर ज़िन्दगी जीयी है मैंने

तुमने आशियाने अपने से निकाला तो क्या हुआ

हर ईंट को गहरे तूफ़ान में भी नींव से जोड़े रखा है

सलामत है वो टूटा आशियाना भी जिसने पनाह मुझे दी

चाहे फिर अँधेरा घर मेरे , तुम्हारे उजाला तो क्या हुआ

नींव चाहे किसी ने रखी , नींव को जोड़े रखा है मैंने

कि वजह मेरी से ईंट इसकी न गिर जाए

ज़रिया हर सुराग़ का तोड़े रखा है मैंने

कोई शिकायत नहीं कि आशियाने तुम्हारे ने मेरे लिये 

हमेशा खुद को बंद रखा

क्योंकि खंडरों का हर किस्म का फर्ज़ मुझे अपना सा लगता है

इन्हीं खंडरों ने पनाह दी मुझे

बस इसीलिए ही , 

ये पनाह का कर्ज़ मुझे अपना सा लगता है

मेरी आजमाइशों को मुकाम तुम्हारे की ज़रूरत नहीं

मेरी नींदो को रात तुम्हारी की ज़रूरत नहीं

मोहताज़ नहीं मैं प्यार तुम्हारे की जीने - मरने के लिए

मेरे इतिहास को तुम्हारे पन्नों की ज़रूरत नहीं

कमसिन सी है जिंदगी

ख़्वाब राहों को टोहते फ़िरते हैं

मुकाम की आज़माइश थी मेरी तुमसे

पर अब तो पन्ने बस कोरे पलटते हैं

तुम्हारे दिखाए रास्ते पर अब अच्छा नहीं चलना सा लगता है

मैं क्या करूँ , बस हर वीरान रास्ता मुझे अपना सा लगता है

हिम्मत कौन देता है आख़िर

जो बेख़ौफ जीती हूँ मैं

वो सनसनी रातें वो कड़वी सी यादें

आक्रांत चीखी हूँ मैं

सन्नाटों के शोर में मेरी ख़ामोशी चिल्लाती है

हाँ आज भी महलों में मुझे 

खंडर उन्हीं की याद आती है

दलीलें ये ग्रस्त, विक्षिप्त सजना - सँवरना सा लगता है

मैं तर्क रहित रह गयी देख ये, 

कि उन खंडरों को रहन मेरा अपना सा लगता है

ये ख़ामोशी, ये आँसू

ये तन्हाई, ये वीरान नज़ारा सब मुझे अपना सा लगता है

दो पल के चैन के उस वक्त में

मेरे होश उड़ जाना अपना सा लगता है

थक चुकी हूँ मैं

रिश्तों, बन्धनों, उम्मीदों के बोझ ढोते- ढोते

अब हर टूटा तार, हर टूटा धागा, हर टूटा रिश्ता

मुझे अपना सा लगता है

ज़माने भर में मोहताज़ महज़ तुम्हारी मैं क्यों बनूँ

ढलती आजमाइशों , उड़ते परवानों के बीच

आख़िरी आस तुम्हारी मैं क्यों बनूँ

मैं तो तोड़ चुकी न सारे बंधन , रास्ते अब अलग हैं

फिर सन्नाटों के शोर में एक आवाज़ तुम्हारी 

मैं क्यों बनूँ

वो एक आवाज़ अपनेपन की चाहिए थी मुझे

वो एक हाथ सहारे भर का चाहिए था मुझे

वो एक हँसी शरारतों भरी चाहिए थी मुझे

वो एक जवाब सभी सवालों का चाहिए था मुझे

तुम एक दफ़ा नज़र भर देख न सके मुझे 

शायद इसलिए हर एहतियात तुम्हारा बचकाना सा लगता है

मैं खुश हूँ अपनी ज़िंदगी में ज़रूरतें सब सूक्ष्म है

इसलिए अपनापन ही मुझे महज़ अपना सा लगता है

पैसों का व्यापार तुम्हारा था मेरा नहीं

हर एक मर्ज़ को हर दफ़ा तुमने पैसों से तोला था

"पाई - पाई का हिसाब चाहिए हर मर्ज़ का"

ज़रा याद कर देखो तुम्ही ने बोला था

अब रिश्तों के धब्बे हट चुके है

हो चुकी है वो ज़मीन मेरी तुम्हारी

अब हमारी दुनिया अलग है , अलग राह है

अब न जो तुम्हारी वो मेरी , न जो मेरी वो तुम्हारी

औकात तुम्हारी बताने की ज़रूरत नहीं मुझे

आगाह तुम्हें किया बस अब और नहीं

हथियार अब हाथ में मैं उठाऊँगी

बदल चुकी मैं, अब रिश्तों-नातों का ज़ोर नहीं

कमसिन देख अदाएं ये तुम्हारी 

अब ये युद्ध होना निश्चित सा लगता है

हाँ , खबर है मुझे, कि हाथ तुमपर उठाना

हक़ मुझे अपना सा लगता है

दफाएँ तेरी वफ़ाएँ मेरी 

तुमने कहा मैं मान गई

पर अब ये संग्राम केवल सूत्रधार नहीं है

अब सब पार सरहद है , कोई जीत - हार नहीं है

रगों में मैंने भी खून से बतला दिया है

आज खौलना है तुझे, मैंने समझा दिया है

अब ये लड़ाई आर-पार की नहीं

अब ये लड़ाई हर बार की नहीं

अब ये संग्राम है - या तुम या मैं

अब ये अध्याय है - या तुम या मैं 

आख़िरी ये मुकाम है - या तुम या मैं

अंत का ये सार है - या तुम या मैं

ये युद्ध का ऐलान है - या तुम ये मैं

ये आख़िरी पैगाम है - या तुम या मैं

ये एक का विनाश है - या तुम या मैं

ये प्रलय की आवाज़ है - या तुम या मैं

अवश्यवमभावी फ़ैसला है 

दहलीज़ की आख़िरी चढ़ाई है

तुम्हारे मेरे दरमियां - या तुम या मैं

ये उम्र की आख़िरी लड़ाई है।



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