महाभारत - द्रोपदी चीर हरण
महाभारत - द्रोपदी चीर हरण
एक दृश्य इतिहास पुराना
खेल जुए का चला हुआ
एक और थे पांडव बैठे पाँचों
एक और दुर्योधन अड़ा हुआ
मन के मारे , तन के हारे
बैठे पांचों भाई थे
स्वयं दाव पर लगे हुए
भविष्य के वे उत्तरदाई थे
स्वयं को भी दांव पर लगा दिया
अब समीप कुछ मेरे बचा नहीं
राजपाट भ्राता सब खोए
अब शेष दाव को कुछ रहा नहीं
भला सभी का यह होता
इतिहास वही पर रुक जाता
जो हुआ वह अत्यंत निंदनीय
पन्नों में कभी ना कहा जाता
बोल उठा था कर्ण वहीं से
और रीत पतन की शुरू हुई
तुम कहते हो कुछ शेष नहीं
वह पांचाली है बची हुई
वो मृगनयनी वो कोमलंगी
उसको भी दाव पर लगाओ तुम
जीते तो खेल तुम्हारा है
वरना फिर हार जाओ तुम
खौल उठा रक्त पांडवों का
सभा में सार स्वरूप कोई मिले नहीं
धृतराष्ट्र द्रोण थे मूक बने
गंगापुत्र तक भी मिले नहीं
देखा एकटक दुशासन को फिर
जाने को संकेत दिया
पकड़ केश लाओ पंचाली को
दुर्योधन ने आदेश दिया
एक वस्त्र में लिपटी मर्यादा
माह धर्म से जूझ रही थी वो
किसने तुमको आदेश दिया
पीड़ा से पूछ रही थी वो
एक पल स्वयं को देखा उसने
दूजे ही पल बोल उठी
किसने यह अधिकार दिया
वो शक्ति धैर्य डोल उठी
कुरु वंश की मर्यादा मैं
संबंधों का वादा हूँ
पांचाली में पांडवों की
इसी वंश की मर्यादा हूँ
जिसने तुम को आदेश दिया
मेरा संदेश सुना देना
पांचाली ना आने वाली
जा करके उन्हें बता देना
मान मर्यादा नियम कायदे
क्या तुम से भी पालन नहीं होता
आदेश मिला तुम चले आए
क्या तुमने भी एक पल न सोचा
बहुत कुछ कहा पर कुछ नहीं सुना
हाथ केशों में जाकर अटक गए
पकड केश घसीटा देवी को
शब्द शीशे की भांति चटक गए
आदेशों के घेरे में
शब्दों के अंबार में
क्षीण, निर्झर, निर्लज्ज यह देह
अपराधों के संसार में
आदेश सहारे हैं दुशासन
क्या मन अपने की मेट रहे हो तुम
जो मिली राह में मां गांधारी
क्या कहूं मर्यादा घसीट रहे हो तुम
सदियों की रीत विध्वंस हुई
वह सम्मुख सभा की थी खड़ी हुई
थे चेहरे सारे झुके हुए
और सबकी आंखें मिची हुई
जाकर बोली है पितामाह
हाथ जोड़ प्रणाम करती तुमको
अधनग्न ये मर्यादा
आज नमन करती तुमको
आज क्या आशीष मुझे देंगे
इस नारी जाति दुखियारी को
कुरु वंश की मर्यादा को
पाँच स्वामियों की अर्धांगी को
क्या बस कुरु वंश का ज्ञान तुम्हें
कुरु मर्यादा का ज्ञान नहीं
क्या आपके हित भी होगा यह
कि नारी का उत्थान नहीं
चलो मान लिया है ज्येष्ठ गुरु
कोई दो टूक नहीं बोला
पर नारी जाति इस प्रश्नचिन्ह पर
तुम्हारा भी खून नहीं खोला
अश्कों से भीग गई आंखें
गंगापुत्र भी सहम गए
क्या करता पुत्री बोलो मैं
ईश्वर मुझ पर रहम करेंजचत
पुत्री ना कहो हे भीष्म पिता
पुत्री संबोधन नहीं जचता
पुत्र ही होती यदि मैं तुम्हारी
ऐसा कोई हरगिज़ नहीं करता
प्रणाम पिता धृतराष्ट्र आपको
प्रिय अनुज के पुत्रों की बहू हूँ मैं
कुलवधु हूँ मर्यादा हूंँ
कुरु वंश की पिता श्री बहू हूँ मैं
सिंहासन पर विराजे हैं
भाग्य आपके जो नेत्रहीन हैं आप
कुरु वंश की मर्यादा जो
भरी सभा में वस्त्रहीन है आज
जो ये दृश्य देखते आप आज
स्वयं नेत्रहीन हो जाते
आधे भागी है बने हुए
पाप में पूर्णतः भागी हो जाते
गुरु द्रोण की ओर बढ़ी फिर
पांचाली की आस भरी
हे गुरुवर नमन करती तुमको मैं।
फिर उसने थी एक आह भरी
क्या संदेशा भिजवाया था कि
प्रिय मित्र मेरे पिता तो पुत्री हूँ मैं
हूँ पंचाली वधू पांडव पुत्रों की
तो आपकी भी फिर बहू हूँ मैं
आज किस संबंध को निभाएंगे
कौन सा तिलक लगाएंगे
लाचार खड़ी है द्रोपदी
क्या आवाज उठाएंगे
सदियों से चलती रीत रही
राधा कृष्णा के प्रीत रही
क्या राज आपका इस भाति
कि नारी जाति चीख़ रही
कर जोड़ कर रही प्रार्थना
यही कर अधरों से कभी चूमे थे
क्या महा विद्वान कहने के हो सब
ये प्रश्न किसी ने पूछे थे
वस्त्र खींच लो इस दासी के
दुर्योधन की टेर बँधी
दुशासन भी क्रम में आया
वस्त्र खींचते ने देर लगी
बोलो वीरों, महाविद्वानों
नारी कहां गुहार लगाएगी
या तो स्वयं मरेगी वो
यह समस्त सभी के मार दी जाएगी
कैसे दाव पर लगाया आपने
क्या मैं आपकी संपत्ति हूँ
यदि हां तो संग में क्यों नहीं लगी
और बिना आज्ञा कैसे लग सकती हूँ
वो कोमल देह, वो चीख़ भरी
जिसे सूरज का ताप देख न पाया
मैं पवन वेग ने ही देखा था
न वर्षा, धरा, न छाया
एक छोर को दांत से पकड़ा
हाथ जोड़ नेत्रों मे पानी
वो मर्यादा अब पीड़ित थी
वो कृष्ण- कृष्ण रटने वाली
हे कृष्ण तुम्ही तो आओ अब
सखी को चीर बढ़ाओ अब
मर्यादा लज्जित न हो पाए
कुछ कृपा सखा कर जाओ अब
हाथों में पीड़ा होती थी
खींच खींच के वस्त्र का भाग
पर एक अंग न दिख पाया
मर्यादा न हुई निहाल
हे माधव नारी जाति संपूर्ण
प्रणाम तुम्हें करती सारी
कोई भय नहीं है हे केशव
लाज बचाएंगे हमारी गिरधारी।
