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Ashish Srivastava

Tragedy Crime

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Ashish Srivastava

Tragedy Crime

घाटी की गोद में कालिमा

घाटी की गोद में कालिमा

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शांत थी घाटी, हर्षित उपवन, नन्हे पगों की चहचहाहट,

माँ की गोदी, हँसी के पल, जीवन की सहज आहट।


तभी अचानक कालिमायें, मानवता को लील गई,

धर्म पूछकर प्राण हरें, सभ्यता की रीढ़ हिल गई।


आधार दिखाओ, मज़हब बताओ — यह कैसा यम का संवाद?

हिंदू नाम हो तो मृत्यु मिले, और मुसलमान पर रहे आशीर्वाद?


जो बोला 'राम', निशाना बना, जो चुप रहा वो भी मिटा,

काँप उठी संवेदनाएँ, जब मासूम रक्त में सना।


माँ की गोदी से छूटा बच्चा, अब सपने नहीं देखेगा,

जिसके हाथ में थी मुस्कान, अब वो दीप नहीं चमकेगा।


बुज़ुर्ग की पुकार गूंजी, क्या यही धर्म की परिभाषा?

बेटी की आँखें पूछ रही थीं — क्या मेरा दोष था भाषा?


पर्यटन की भूमि जहाँ कभी, काव्य बहते थे निर्झर से,

वहीं बरसीं अब गोलियाँ — प्रश्न गूंजे हर तरु और शाखा से।


निर्दोषों का बहा लहू जब, चीत्कारें गूँज उठीं नभ में,

मानवता का शव जला था, धर्मों के गर्वित रथ में।


अब प्रश्न खड़े हैं हम सबसे — कब तक ये तांडव सहें?

कब तक मज़हब के नाम पर, यूँ ही निर्दोष कटें?



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