मौन की यात्रा
मौन की यात्रा
शब्द भरे हृदय में मेरे, पर वाणी मौन बनी,
भावों की ज्वाला भीतर है, पर बाहर शांति ठनी।
दृश्य देखता हूँ सबको, स्वयं से ही छिपता हूँ,
सांसों के इस गहरे सागर में, धीरे-धीरे डूबता हूँ।
स्वयं में स्वयं को समाहित कर, ढूँढ़ रहा परिचय मैं,
कौन हूँ, क्यों हूँ, किससे जुड़ा, यही खोज विषय मैं।
ना क्रंदन करता हूँ जग में, ना हर्षित हो पाता,
कर्मभूमि पर चलता हूँ, पर भीतर कुछ खो जाता।
दर्पण भी जब प्रश्न करे, क्या तू ही तू है सच में?
उत्तर देने से पहले ही, मौन उतरता मन में।
न मृदु सुखों की अभिलाषा, न ही तप की लालसा,
बस जानना चाहता हूँ — मैं कौन हूँ? यह आशा।
