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Dr. Vijay Laxmi"अनाम अपराजिता "

Abstract Tragedy Crime

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Dr. Vijay Laxmi"अनाम अपराजिता "

Abstract Tragedy Crime

इंसानियत हुयी शर्मसार

इंसानियत हुयी शर्मसार

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पहाड़ों ने बहाए आँसू, नदियाँ चुप हो गईं,
धरती कांपी पीड़ा से, हवाएं भी खो गईं।
पहलगाम की वादी में, मातम सा सन्नाटा,
मासूमों की चीखों ने,इंसानियत को काटा।

भरोसे की चादर फटी,रूह काँपी भीतर से,
कौन था जो इतना गिरा,इंसान की शतर से।
काफिला चल रहा था श्रद्धा में डूबे दिल से,
नफरत ने वार किया, छिपकर फिर छल से।

धर्म की आड़ में खेले गये,कैसे ये खूनी खेल,
कायरता की मिसाल,वे चेहरा बेरंग और ढेल।
माँ की ममता हुई सूनी,बच्चे बेसुध नज़र आए,
कहाँ गए वे वादे,जो अमन की बातों में आए।

सियासत चुप, नीयत अंधी, हर तरफ है शोर,
क्या यही है मानवता,जिसका करते हम गौर?
एक सवाल हवा में गूंजे कब रुकेंगे अत्याचार?
कब तक सहेंगी वादियाँ, ये मौत का व्यापार?

इंसानियत हुई शर्मसार रिश्ते हो गये तार-तार
रिश्तों की रूह तोड़ दी, जज़्बात हुए शर्मसार। 
जहाँ प्यार होना था,वहाँ नफ़रती बाजार लगे,
जिसे कहते थे अपने,उन्होंने मिल वार किया।

फूल नहीं,अब बंदूकें खिलती हैं उस जन्नत में,
बचपन भी डर से सिमटा है, द्वेष की बातों में।
पहलगाम पुकार रहा है,न्याय की अब बारी है,
इंसान को फिर से इंसान बनाने की तैयारी है।
                      स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी
                              'अनाम अपराजिता'



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