बिना तकनीक के जीवन
बिना तकनीक के जीवन
सूरज की किरणों से जगता सवेरा,
धरती का आंचल, हवा का बसेरा।
नहीं थी मशीनें, न होती दौड़-भाग,
जीवन में थी केवल सुकूनी झाग।
कच्चे घरों में मन सृजता-खिलता,
पंछियों के गीत से दिन था ढलता।
हाथ से रोटी, चूल्हे का उड़ता धुआँ,
सादगी में झलकता सुख का अवां।
नहीं थे फोन, न स्क्रीन का संजाल,
दिल से दिल की बातें न थे बेहाल।
चिट्ठियों में छुपे भावुक स्वप्नी रंग,
धरा में रहते उड़ाने नभ के संग।
चौपाली बातें, कहानियों की बहार,
हर शाम सजती, रिश्तों के दरबार।
बूढ़े बरगद तले बच्चों की वे टोली,
हँसी-ठिठोली में बीतती थी होली।
वृक्षों के नीचे मिलती थी ठंडी छाँव,
धरती की गोद में खेलने जैसे भाव।
न तकनीकी दूरी, न आभासी भ्रम,
बस जीवन सरल, और अपनापन।
आज की दौड़ में सब कुछ है पास,
पर सुकून का जीवन कहाँ खास।
बिना तकनीक जो जीवन थे सरल,
अब वही होते हैं कठिन और प्रबल।
