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ये कैसी बुज़दिली ?

ये कैसी बुज़दिली ?

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आदत सी हो गयी है अब
नज़रअंदाज़ करने की..
फिर चाहे वो ..
जूठे बर्तन धोता कोई मासूम हो..
या फूटपाथ पे, सर्द हवाओं से लड़ता कोई हड्डियों का ढांचा..
मदद के लिए पुकारता कोई ज़िंदा इंसान हो..
या सड़क पे पड़ा कोई मुर्दा ..
बस . . गुज़र जाते हैं लोग ..
नज़रअंदाज़ करते हुए ..

मैं भी तो शिकार हूँ
इसी आदत की ..
गुज़र गयी थी एक बार
नज़रअंदाज़ करते हुए
खून से लथपथ .. दर्द से कराहती..
नग्नावस्था में पड़ी एक औरत को ..
हाँ.. कुछ पल ठहरी थी मैं
उस भीड़ का हिस्सा बन..
पर बढ़ा न सकी दो कदम 
लंबा होता है शायद
इंसान का .. इंसानियत तक का सफ़र..

क्या रोक रहा था मुझे
डर ... ?
कहीं कोर्ट कचहरी का चक्कर हुआ तो?
या घृणा ... ?
कही इसके साथ बलात्कार तो..?
क्या पता लड़की ही वैसी हो..
या स्वार्थ ..?
इतनी भीड़ में मैं ही क्यूँ ?
हज़ारो सवाल आ गये थे दिमाग में..
नहीं आई तो बस एक शर्म..
शर्म अपने स्वार्थ पर..
शर्म अपनी सोच पर..

और बस .. 
गुज़र गयी मैं भी..
उसकी तकलीफ़ को अनदेखा कर ..
उसकी चीख़ को अनसुना कर..

क्या वाकई ..
इंसानियत कुछ पल के लिए मर जाती है ???


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