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JAYANTA TOPADAR

Abstract Tragedy Crime

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JAYANTA TOPADAR

Abstract Tragedy Crime

नासूर...

नासूर...

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जब किसी 'आम' इंसान की

स्वाभिमान को ठेस पहुँचती है,

तब इस दुनिया की किसी भी दर्ज़े के

'खास' इंसानों की तख्त-ओ-ताज़ तक

यक़ीनन डगमगा जाती है!


वो 'आसमां' में चमचमाने वाली

उन 'खास' इंसानों की हस्ती तक

खाक़ में मिल जाती है,

जब उनमें किसी 'आम' इंसान की

सिसकियाँ और तड़प को

दिल में महसूस करने की

औकात नहीं होती...!


अरे, ओ, उन 'खास' इंसानों के

आगे-पीछे भंवरों की तरह 

मंडराने वाले 'खुशामदी' चमचों !

अब तो अपनी बेशर्मी पे बाज़ आओ...!!!

अब तो यूँ 'चापलूसी' से तौबा करो !!!

ये ज़िन्दगी ऊपरवाले की देन है...

इसे यूँ बेहयाई में 'खास' इंसानों

की तलवे चाटने में ही

न गँवा देना...

ज़रा अपनी हालत पे भी रहम करना,

ऐ खुदगर्ज़ चापलूसों!

ऐसे हालात में

तथाकथित 'मनुष्यता' और

समाज-सुधार के

उन 'ख्याली' सुनहरे ख्वाबों का

पुल तो रफ्ता-रफ्ता नेस्तनाबूद हो जाएगा...

और ये 'घाव' दिमाग में

नासूर बन कर फैल जाएगी...



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