तौबा! तौबा!
तौबा! तौबा!
अलास्य है गुप्त शत्रु, परचर्चा है महाव्याधि...
मन को कर अटल, ऐ मनुष्य! यदि
फिसल जायेगा हाथों से पुरुषार्थ,
तो ये जीवन सारा है व्यर्थ!
तू कर ना अनर्थ, ऐ मनुष्य!
ये ज़ुबान है बेशक़ अनमोल,
घूमा ना किसी को गोल-गोल...
तू बस तोल-मोल कर बोल!
अगर कुछ करने की मनसा नहीं तुझमें,
तो किसी दूसरे को बिगाड़ना नहीं इस जग में!
ऐसा करना महापाप है,
इतना तू भलीभांति जान ले...।
एक दिन ऐसा आएगा कि कहीं
ठिकाना भी ना मिलेगा तुझे!
तू अब तो सुधर जा, मनचले!!
वरना अपना बोरिया-बिस्तर ही बांध ले...।
पीछे खड़े हैं क़ाबिल लोग
कतार में बहुतेरे...
ज़रा तू अपनी नज़रें उठाकर तो देख ले...!
पग-पग पे प्रतिबन्ध हैं अनगिनत
ये समझ ले...नहीं तो आखिर
हो जायेगा नेस्तनाबूत, अरे!
अब तो अपनी सोई हुई
इंसानियत को जगा ले...
अपनी दकियानुसी ख़यालात से
तौबा कर रे!!
वरना ज़िक्र भी होगा नहीं तुम्हारा
कभी यहाँ दास्तानों में...
