अंत
अंत
जब जेब में "फूटी कौड़ी" भी नहीं हो...
जब मजबूरियों के दलदल में फंसकर,
वक्त की हेराफेरी में कोई
ईमानदारी की "खोखलेपन" में
अपनी "गलतफहमी" का
खामियाजा भुगतने लगता है,
तब उसे एहसास होता है कि
ऐसी बदहाली में कहीं तथाकथित
"नीति-पाठ" और "प्रवचन" का सिलसिला शुरू होता है, तो
आप ही बताइए कि
रात-दिन एक करके कोई
"कर्मोत्साहित" इंसान अपना सबकुछ दाव पर लगा देता है
और बदले में उसे
'दिखावटी' भावनात्मक वैचारिकता का 'आडंबर' दिखाया जाता है,
तो आप ही बताइए कि
एक "लकीर-का-फक़ीर' कैसे
अपनी उजड़ी दुनिया बसा पाएगा...??
अब आप ही बताइए, जब
ऐसी बनावटी "अभावग्रस्त" अवस्था
एवं घोर 'दुर्दशा' में कोई "सच्चा" इंसान
वक्त के ठेकेदारों की 'ठगी' का
शिकार होता है, तो
उसका क्या हश्र होता है...???
ये सोचनेवाली बात है कि
अपनी आरामदायक ज़िन्दगी में
बड़ी शान-ओ-शौकत से गुज़र बसर करनेवाले 'तथाकथित' समाज के 'नुमाइंदे
लाचार, कमज़ोर, मजबूर मुफलिसों को
'त्याग' और 'तपस्या' की 'भट्टी' में
तपने की सलाह-परामर्श देते हुए...
असली मुद्दों से परे हटकर
'खोखली' ज्ञानवर्धक बातों एवं
'चर्चाओं" की शुरूआत तो बखूबी करते हैं,
मगर किसी 'लकीर-के-फक़ीर' की
'व्यथा- कथा' को कैसे 'अनदेखा' करते हैं...???
ऐसे कैसे इस समाज में विभाजन
को खत्म किया जा सकता है...???
ऐसी 'बनावटी' भावनाओं का अंत हो...!!!
