घिग्घी...
घिग्घी...
सच सुनने और सच बोलने में
अक्सर कुछ लोगों की
घिग्घी क्यों बंध जाती है ?
क्यों कुछ सुविधावादी लोग
अपनी दकियानूसी सोच को ही
पकड़कर बैठ जाया करते हैं
और सारा गुड़गोबर कर दिया करते हैं??
क्या उनकी इंसानियत को
पाप की दीमक चाट गई
या फ़िर उन्हें अपने स्वार्थचिंता के सिवाय
कोई और बात सूझती नहीं???
ये बड़े अफसोस की बात है कि
यहां सच्चे और एकनिष्ठ लोगों की
क़ीमत
चमचों और आगे-पीछे दुम हिलाते हुए
बंदरों से कम ही होती है...!!!
ऐसे कब तक काम चलेगा, भाई ???
ज़रा मुझे तो बताइए...!!!
इसीलिए यहां रुपया बोलता है...!!!
