अनजाना भय
अनजाना भय
छिपे खतरों से है आशंकित मन,
होता अति भय का आभास निरंतर,
गुमशुदगी बहुत हो रही इर्द गिर्द,
हरपल बेचैन मन कर रहा रुदन ।
सुरक्षित जिन्दगी लुप्त सी हो गई,
बेखौफ भ्रमण पर लग रहा ग्रहण,
नित्य राह चलते गुमशुदा होते नौनिहाल ,
अपहरणकर्ता सा लगे संदिग्ध राहगीर।
कभी बेटी , तो बेटे होते कभी गुम,
आते–जाते राह से हो जाते वे लोप ,
अब डर भी नहीं किसी नगर कोतवाल का,
गुंडे मवाली बैखोफ घूमते भरी दोपहर ।
मानव अंग की तस्करी में शामिल कुछ लोग,
अंग खरीद–फरोख्त का बढ़ रहा है बाजार ,
नही मिलते कोई आसानी से अंगदानी यहां,
शायद बच्चे इसलिए गुम होते चहुंओर।
हो घर का चिराग , या सयानी बिटिया कोई ,
खतरे की आहट को शीघ्र ही पहचान ना पाए तो,
सोचिए क्या मंजर होगा जब टुकड़ों में मिले कहीं,
संवेदनाएं दम तोड़ रही, अब ना जाने क्यों ...?
