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PRATAP CHAUHAN

Crime

4.8  

PRATAP CHAUHAN

Crime

सृष्टि सृजिका

सृष्टि सृजिका

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देख दहेज के दानव को प्रभु,

 सिसक रही कहीं सृष्टि सृजिका।

 कहीं बिलखती कहीं तड़पती,

 हो गई गुमसुम कृति की कृतिका।।


 पीड़ा का वर्णन क्या करना,

 मूक-बधिर बनकर जब रहना।

 नैनों से नीर हुआ गायब,

 फिर नित्य हुआ पीड़ा का सहना।।


पाखंड यहां हावी इतना,

तेरा कसूर क्या है नयनी।

हर रिश्ता ठगा-ठगा सा है,

जहां अलंकार माया ठगनी।।


जहां विद्या का सम्मान नहीं,

सिंदूर-प्रथा का ज्ञान नहीं।

जो त्याग सहोदर आई है,

उस नारी का कोई मान नहीं।।


 निस्वार्थ किया जिसने अर्पण,

 जीवन जिसका अद्भुत तर्पण।

 अर्पण-तर्पण अनमन-दर्पण,

 जिसमें गुजरा उसका हर क्षण।।


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