सृष्टि सृजिका
सृष्टि सृजिका
देख दहेज के दानव को प्रभु,
सिसक रही कहीं सृष्टि सृजिका।
कहीं बिलखती कहीं तड़पती,
हो गई गुमसुम कृति की कृतिका।।
पीड़ा का वर्णन क्या करना,
मूक-बधिर बनकर जब रहना।
नैनों से नीर हुआ गायब,
फिर नित्य हुआ पीड़ा का सहना।।
पाखंड यहां हावी इतना,
तेरा कसूर क्या है नयनी।
हर रिश्ता ठगा-ठगा सा है,
जहां अलंकार माया ठगनी।।
जहां विद्या का सम्मान नहीं,
सिंदूर-प्रथा का ज्ञान नहीं।
जो त्याग सहोदर आई है,
उस नारी का कोई मान नहीं।।
निस्वार्थ किया जिसने अर्पण,
जीवन जिसका अद्भुत तर्पण।
अर्पण-तर्पण अनमन-दर्पण,
जिसमें गुजरा उसका हर क्षण।।