आपदा
आपदा
प्रकृति अब क्रुद्ध है,
मार्ग भी अवरुद्ध है,
पर्यावरण हुआ विषैला,
जीना एक युद्ध है।। 1
डोल रही ये जमी,
कांप रही अब धरा ,
इंसान है डरा–डरा,
किसका ये किया धरा ? । 2
पहाड़ अब दरक रहे,
ग्लेशियर सरक रहे,
वन अग्नि से धधक रहे,
घर टूट कर बिखर रहे ।। 3
गंगा जो हुई मैली है,
हो चुकी विषैली है,
कैसे आचमन करें ?
यही एक पहेली है ।। 4
विकास की जो लालसा ,
तन मन से सबने सींची है,
विनाश की विभीषिका ,
खुद की ओर खींची है।। 5
पुरखों ने जो सौंपी थी,
हरी भरी वसुंधरा,
विरासत में भविष्य को,
सौंपी छिन्न–भिन्न धरा ।। 6
सड़को का बिछता जाल हैं,
विलुप्त अब बुग्याल हैं,
देवभूमी यूं बदहाल है,
प्रकृति हुई विकराल है।। 7
निज स्वार्थ में रमे हैं सब,
चरित्र को विकृत किया,
प्रकृति समृद्ध गढ़वाल को,
क्षत–विक्षत ही कर दिया।। 8
कभी बाढ़ का प्रकोप हो,
है भूकंप की संभावना,
कहीं सुनामी की विभीषिका,
है भूस्खलन नित यहां ।। 9
बस इक यही सवाल है ?
इसका कौन जिम्मेदार है?
मनुष्यता की जिन्दगी,
जार–जार– बेजार है।। 10
पहले मर्यादा भी समृद्ध थी,
नैतिकता भी चहुं ओर थी,
निश्चिंतता की शाम थी,
उल्लास की नित भोर थी ।। 11
मन में ना कहीं भेद था,
ना कोई मतभेद था,
निर्मल वर्षा जल लिए,
बादल भी झक सफेद था।। 12
अब आपदा घनघोर है,
व्याकुलता का शोर है।
मानवता अब विलुप्त है,
दानवता चहुं ओर है।। 13
विपिन सकलानी
ऋषिकेश
