कलमी कायर
कलमी कायर
मस्तक जिनके हम ला ना सके,
अपना कर्तव्य निभा ना सके ,
परिजन जिनके आंसू खोकर,
पत्थर दिल को पिघला ना सके,
मैं उन दो वीर जवानों को ये माफीनामा लिखता हूं
है मुझे पता ये करने से मैं भी पत्थर ही दिखता हूं
मैं क्या लिख दूं उस बाबा को जिसके आंगन में तुम खेले,
उस माई से मैं क्या कह दूं, तुमसे थे जिनके सब खेले,
कैसे बोलूं उसे राखी से रक्षा के हाथ नहीं होंगे
बोलो भाई से कह दूं क्या , कि भैया साथ नहीं होंगे
मैं फिर भी पूरी निर्लज्जा से यह क्षमा याचना लिखता हूं ,
है मुझे पता कुछ भी कर लूं मैं ‘कलमी’ कायर दिखता हूं,
उस पत्नी बेटी बेटे से, कैसे मैं कहूं कि पढ़ लो यह
उन्नत मस्तक ला पाए नहीं कृंदन करने को धड़ लो यह
मेरी आंखों के आंसू भी मुझको धिक्कार के जाते हैं,
मेरे कागज मेरी कविता सब निर्लज मुझे बताते हैं,
दुनिया समझे अनमोल जिसे, अब अपनी नजरों में बिकता हूं, है मुझे पता कुछ भी कर लूं,
मैं ‘कलमी’ कायर सा दिखता हूं