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अंकित शर्मा (आज़ाद)

Abstract Inspirational Others

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अंकित शर्मा (आज़ाद)

Abstract Inspirational Others

नसीब

नसीब

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समझी जाती थी कभी खामोशी भी मेरी,

अब तो अल्फ़ाज़ भी मेरे शिकस्त पाते हैं।

शायद दौर ऐसा है या मेरा नसीब है ऐसा

बाती टूट जाती है दिया जब भी जलाते हैं।।


यूं तो हमको नहीं आदत,कोई सरगम बजाने की,

और न हमको है चाहत,रंगों को बिखराने की,

टीस जो दिल में उठती है,अक्सर गुनगुनाते हैं,

मन में तस्वीर है उनकी, उसी में रंग सजाते हैं।

पर ये बाती टूट जाती है,दिया जब भी जलाते हैं।


टूटता हूं थपेड़ों से मैं तिल तिल हर बार,

नज़र आती है जब नफरत, जहां कभी था बहुत प्यार।

खामोश बेहतर थे, कम से कम तुम्हारे मन से तो हम थे,

समझे जाते गलत उतना, जितना खुद को समझाते हैं।

ये बाती टूट जाती है दिया जब भी जलाते हैं।


हमें ख़ुदग़र्ज़ कहते हो, मगरुर मानते हो हमको,

कहते हो सांसों सा करीबी, क्या तुम जानते हमको?

ये तो दस्तूर दुनिया का , शिकायत किसकी क्या करिए

फेरती नजरें धरती है, छिपा सूरज बताते हैं।

बाती टूट जाती है, दिया जब भी जलाते हैं।


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