अजनबी अक्स मेरा
अजनबी अक्स मेरा
निकला था किसी ऐसे शख़्स की तलाश में,
हो पाप का भागी ,ऐसे किसी दुराचारी को ढूँढने की आस में,
जगा सकूँ इंसानियत उस शख़्स के ज़मीर में,
देखता जा रहा था बुराई हर एक राहगीर में!
है बुराई क्षण में भंगुर, अच्छाई दबा ना पाएगी,
हर बुरे इंसां से लड़कर, इंसानियत सामने आ जायेगी,
यही सोच मन में बसा कर, एक बुरे की तलाश में,
चल रहा था द्वंद् पथ पर, ढूँढने बुराई किसी खास में!
इक शख़्स खड़ा था दूर मुझसे, धुंधली परत की ओस में,
था अजनबी सा, परिचित भी था, माथे पर कुछ खरोंच से,
इस शख़्स की बुराई से था मैं वाक़िफ़ हर इक रग से था,
कद काठी और हाव भाव, चलने के उसके ढंग से था!
चेहरे पर उसके रोशनी थी, अजनबी वो हँस रहा,
ढूँढ बुराई खुद में पहले, तंज वो था कस रहा,
बुरा ढूँढने मैं चला था, लिए नज़र खोट की,
अजनबी वो अक्स था मेरा, हृदय पर जिसने चोट की !
