अभिशप्त
अभिशप्त
प्रेम यहाँ अभिशप्त है,
क्योंकि स्वार्थ ही सर्वत्र है।
हर इंसाँ यहाँ,
चेहरे बदलने में परिपक्व है।
यहाँ जो दिखता है,
है यथार्थ नहीं,
खुद ही का गड़ा अक्स है।
यहाँ हर कोई,
इस कला में परिपक्व है।
कला ही सर्वत्र है,
कला की है नैपुण्यता,
और प्रेम यहाँ अशक्त है।
भावों की है नैपुण्यता मात्र,
वरन हर हृदय भाव रिक्त है।
निज स्वार्थ में ही सिक्त है
बधिरों की इस बस्ती में,
तेरा क्रनदन व्यर्थ है।
यहाँ अक्स अभ्यस्त,
औ प्रेम अभ्यस्त है।
सर्वत्र है सर्वत्र है,
स्वार्थ ही सर्वत्र है।
प्रेम तो सदा ही से अभिशप्त है,
क्युंकि स्वार्थ ही सर्वत्र है।
