पिता
पिता
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न जाने क्यूँ हर बार समय उसे यूँ छल जाता है।
कि हर बार वह अपने हृदय की ममता उड़ेल भी नहीं पाता है।
उसके वो हालात और मन के भाव को हर बार,
समय का तराजू बड़ी ही बेरहमी से तौल जाता है।
कि हर बार वह अपने हृदय की मूक वेदना को सह जाता है।
उसकी वो चौकसी लगने ना देती परिवार को खरोंच भी ,
वक़्त की हर मार को वह हँस के सह जाता है।
कि हर बार वह अपने हृदय पे समय के घाव सह जाता है।
हाँ वह पिता ही होता है जो स्वयं बुनियाद हो जाता है,
किंतु शब्दों में छोड़ो कितना लगाव है उसको,
यह बात वह कभी इशारों में भी नहीं बोल पाता है।
हमें हमारे सपनों का इंद्रधनुष दिखाने के लिए,
कि हर बार वह अपने सारे सपने न्यौछावर किये जाता है।