यादें
यादें


स्कूल-बेंच के इर्द-गिर्द ,
तानों-बनों से बुनी वो ज़िन्दगी ,
कितनी ख़ूबसूरत लगती थी।
स्कूल की वो बेंच सचमुच ,
जान सी प्यारी लगती थी।
सच कहें तो उन छः घण्टों की,
सच्ची दोस्त सी लगती थी।
अंताक्षरी के बीच,
तबला वो हमारी थी।
तो मैथ्स के घण्टे में तो वो ,
माँ की गोद से भी ज़्यादा प्यारी थी।
किसी पुष्पक विमान से कम ,
नहीं उसकी सवारी थी।
शेक्सपीयर से प्रेमचन्द तक की,
दुनिया बस और बस हमारी थी।
ब्रह्माण्ड से पर्णपाती वन तक,
उस पर बैठे बैठे ही घूम आते थे।
अरेंजमेंट पीरियड में तो तुम में,
पर ही लग जाते थे ।
जब हम अपने बेस्ट फ्रेंड के साथ,
बैठने का मौका पा जाते थे।
घण्टों तक पढ़ाये गए और,
घोल-घोल के पिलाये गए।
रसायन विज्ञान के सूत्र ,
हम पल भर में भूल जाते थे।
जब केमिस्ट्री टीचर अपने,
सुमधुर स्वर में प्रश्न पूछ जाते थे।
तब प्यारी बेंच हम तुम्हें यूँ देखते थे।
मानो चातक पक्षी बादल को देखते है।
झूमते झूमते और तुम्हारे इर्द गिर्द घूमते,
यूँ ही सेशन कट जाते थे।
और उस अन्तिम दिवस पे,
तुम्हारे विछोह के आँसू,
आँखों के कोनों को नम कर जाते थे।
ये बात और है कि सब दोस्त,
ये बात इक दूजे से छिपाते थे।
मौका पाते ही और छुपते छुपाते ही,
हम झाँक के ये देख जाते थे।
की मेरी बेन्च पे कौन बैठा है,
और रिसेस में मौका पाते ही,
तुमपे मालिकाना हक जताते थे।
और अपने जूनियर को ,
बड़े ही अदब से ये बात बताते थे।
"लास्ट ईयर ये बेंच मेरी थी"
हममे से कुछ अति भावुक हो जाते थे।
और तुम्हारा ध्यान रखने की,
ताकीद तक दे जाते थे।
मुझे आज भी सामने पड़ी ,
महोगनी की बेशकीमती मेज से ज़्यादा,
अपनी स्कूल बेंच ही जमती है।
सच तो यह है कि स्कूल बेंच ही,
हमारा भविष्य गढ़ती है।
मेरे लिए तो तू यादों की वो ढेरी है,
जहाँ आज भी बचपन की ,
महकती यादें तेरी-मेरी हैं।