जिज्ञासा
जिज्ञासा
ऐसे तो पहले भी दो दफे मिले हम
पर आज शाम वो सबके
बिना वाली मुलाकात है
ये हमारी पहली मुलाकात है
सौरभ, सिर्फ मैं और तुम है
किन्तु एक जिज्ञासा है अब
जो हम से जारी है
जिसका क्या परिणाम रहा मैं न जानूँ
क्यूँकि बात ही कुछ ऐसी हमारी है
मैं बैठा था खाने की टेबल पर
जिज्ञासु की लहरें तुम मे झाँक रही
रखकर पैर किनारों पर
काव्य की गहराई को माप रही
शायद यहीं से दोस्ती की शुरुआत रही
जब तुम्हारी आँखें, आँखों में डाल के
अपनी क्षमता से मुझको आँक रही
मैं तुझमें कितना जा उतरा हूँ
आर या पार मैं न जानूँ
अँधियारों में कोरे कागज पर
अपनी जिज्ञासा का इजहार किया है
बस इतना सा ही मैं जानूँ
तभी इस जिज्ञासी अंधियारे रस्ते पर
चलने को बढ़े कदम हमारे
ओर इसी जिज्ञासा के पूर्ण
धर्म भेद का कलंक मेरे आया माथे
कुछ लगे दोष नए
कुछ मेरे असल थे साये
उचित-अनुचित को क्या चुनना
जब जिज्ञासा खुद हो पथ अपना
सही तो है बस वही
जो है पूर्व से ही स्थापित
जिज्ञासा के आँगन में
अप्रत्याशित प्रत्याशा में
सदा कलंक है बसता
जिसमें नए सिरे तक
ले जाने की है समता
हाँ यह भटकाव मेरा सच है
जिज्ञासा मेरा जीवन हक़ है
हाँ, मैं बहूँगा समय की धार में
एक नयी जिज्ञासा फिर आएगी
टूटने का नया दौर चलेगा
जो पुनः गहरे तक बिखर जाएगी
जीवन जीने की आस मैं मुझे फिर जगाएगी।।