नासमझ नहीं थी
नासमझ नहीं थी
नासमझ नहीं थी पर नासमझ बनी
अंजान मैं नहीं थी फिर भी अंजान बनी।
दिखता था सब कुछ फिर भी अनदेखा किया
चाहती थी तुमको शायद इसलिए ऐसा किया।
सुनती थी सब कुछ फिर भी खामोश थी
साथ की तुम्हारे कीमत भी यही थी।
समझती थी सब कुछ फिर भी नासमझ बनी
साथ की तुम्हारे पहली शर्त भी यही थी।
हर अपने को छोड़ के हर सपने को भूल के
मैंने कदम अपना बढ़ाया।
तुम्हरी इस बेमतलब सी जिद पर भी
अपनी मंज़ूरी की मोहर को मैंने लगाया।
कहते थे सब ये खेल है तुम्हारा
समझती थी मैं फिर भी चुप रही।
चाहती थी साथ इसलिए अंजान बनी
मिला था जो वक़्त उस लिए खामोश रही।
देखती थी सब कुछ समझती भी रही
फिर भी भरोसा तुम पर बहुत करती भी रही।
कैसे तोड़ती इस भरोसे को
कैसे करती ये सवाल तुमसे।
क्यों फरेब को तुमने
इस रिश्ते का आधार बनाया।
क्यों इस धोखे से अपने तुमने
हर रिश्ते का मज़ाक़ बनाया।
जिसको बसाया था मन में
कैसे उसको गलत ठहराती।
कैसे तोड़ती ये खामोशी
कैसे तुम पर ये सवाल उठाती।
पर क्या पता था
चुप्पी का मेरी अंजाम ये होगा
शर्तों को तुम्हारी मानने का परिणाम ये होगा।
जिस साथ के लिए सब कुछ था ठुकराया
हर अपने को गलत और सिर्फ तुमको सही ठहराया।
उस साथ को पाने की जिद का अंजाम ये होगा
दूर चले जाने का हमको फरमान यूँ मिलेगा।
फिर भी एक अनजाना सा इंतज़ार है जो छूटता नहीं
साथ तुम्हारा पाना है मन ये भूलता नहीं।
काश ! कोई दुआ ये मेरी मेरे रब तक पहुंचा दे
काश ! कोई मुझको मेरी मंज़िल से मिला दे
काश ! कोई अँधेरे में एक रास्ता दिखा दे।
काश ! कोई तुमको भी मेरे पास पहुंचा दे
उस काश के होने का इंतज़ार मैं करुँगी।
अपनी हिम्मत के टूटने तक मैं लड़ूँगी
फिर भी जो ये हथेली गर रह गयी खाली !
फिर भी जो ये दुआ क़बूल न हुई हमारी !
तो ख़ुशी थी ये तुम्हारी ये सोच के चुप रहूँगी।
पर फिर भी हर पल तुमको याद मैं करुँगी
नासमझ तो नहीं थी पर नसमझ ही बनी रहूँगी।